"कैसा प्रदर्शन, क्या सिर्फ पुलिस की गालियाँ और मार खाने के लिए…हरगिज नहीं! इस तरह का कोई भी कदम मैं उस समय तक नहीं उठाऊंगा, जब तक मेरे पास एक अदद बंदूक न हो" - चे ग्वेरा
भगतसिंह- एक जाना पहचाना नाम विशेष रूप से भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक्शन हीरो के तौर पर। इस नाम के बारे में मुझे क्यों कुछ कहने की जरुरत हो रही है जबकि इस नाम के उपर लाखों पन्ने भरे जा चुके हैं, करोड़ों रूपये का व्यापार हिन्दी सिनेमा कर चुका है। कुछ तो ऐसा है जरुर कि मैं कुछ कहना चाह रहा हूं। तो चलिए भगतसिंह की रेलगाड़ी में सैर करते हैं।
राजीव दीक्षित से मेरा पहला परिचय हाल ही में इंटरनेट के माध्यम से हुआ। मैं उनसे और उनके अंग्रेजों के समय के इतिहास की और भारत की गुलामी से पूर्व की स्थिति पर इतिहास की जानकारी से प्रभावित हुआ। उनका जन्म 1967 में उत्तर प्रदेश में हुआ था। वे आई आई टी के छात्र, फ्रांस में इंजीनियर और वैज्ञानिक भी रहे। कलाम के साथ भी काम किया। आजादी बचाओ आंदोलन के प्रणेता रहे। अल्पायु में ही 2010 में उनकी मृत्यु हो गयी। बाद में वे योग वाले बाबा रामदेव के भारत स्वाभिमान आंदोलन के सचिव रहे और इस आंदोलन के दौरान कई बेहद महत्वपूर्ण व्याख्यान दिए। उनके कुछ व्याख्यान मैंने सुने और सुन रहा हूं। फिर सोचा कि इन व्याख्यानों को शब्द में बदल दिया जाय तो सबसे पहला श्रुतिलेख आपके सामने है। यह व्याख्यान सबसे छोटा था (19 मिनट 45 सेकेंड का) इसलिए शुरुआत इससे ही कर रहा हूं। यह काम बहुत कठिन है। कम से कम मेरे लिए तो बहुत श्रमसाध्य है। फिर भी मैंने इसे सुनकर ज्यों का त्यों एक -एक शब्द लिखा है। भारतीयता और भारत को समझने में उनके व्याख्यानों से मदद मिलती है। अब आपको राजीव के व्याख्यान पढने को मिलते रहेंगे। यह व्याख्यान कब का है, कहां दिया गया, मुझे नहीं मालूम। इस व्याख्यान में आनंदमठ और गीतांजलि की बात आयी है। इसलिए इन दोनों को डाउनलोड करने के लिए लिंक दे रहा हूं।
हिन्दी साहित्य में एक बहुत ही मशहूर छंद रहा है दोहा। दो पंक्तियों में कुछ कहने के लिए यह भक्तिकालीन युग में काफी इस्तेमाल में लाया गया। कुछ लोगों का तो मानना है कि अब इसमें कोई शक्ति शेष बची ही नहीं या यूं कहें कि इसकी सारी शक्ति निचोड़ ली गयी। फिर भी आज दोहे लिखे जा रहे हैं। पहले के कवियों को धर्म, भक्ति, राजा के गुणगान और स्त्री के रूप श्रृंगार के अलावा और कोई विषय शायद ही मिलते थे। जब राजा महाराजा कवियों को सोने की मुद्राएं दे रहे हों तो भला उन्हें और समस्याएं कहां से दिखतीं। कबीर के दोहों को सब लोगों ने सुना है। दोहा इस अर्थ में भी खास है कि इसका सहज प्रवाह और तुकांत होने का गुण लोगों को आसानी से अपनी ओर खींचता था और शायद है भी। जब कोई छंद लय में बंधा हुआ हो तो उसे दुहराना या याद रखना सरल हो जाता है। जैसे हम अक्सर शेर याद रखते हैं और उनका इस्तेमाल अलग-अलग जगहों पे करते हैं ठीक वैसे ही दोहों को भी याद रखा जा सकता है। मुक्तक काव्य में दोहे अपना एक महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं।
एक कविता जो मैंने 29नवंबर 2010को लिखी थी, आपके सामने है। 8मार्च को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जाता है। इसी अवसर पर सोचा कि यह कविता आपके सामने रखूं। इसमें हो सकता है कि शब्द ठीक से न पिरोया गया हो। अर्थ छितराये हुए हों। लेकिन मेरी पुरानी आदत है कि मैं अपने पहले की लिखी चीजों में कोई बदलाव नहीं करता क्योंकि वो मुझे याद दिलाती है कि मैंने उसे कैसे लिखा था। तो पढिए और बताइए लिखने वाला किस हद तक सिरफिरा मालूम पड़ता है।
मनुष्य का जन्म दर्द से ही शुरु होता है। माता की प्रसव पीड़ा के साथ ही एक मनुष्य का आगमन इस संसार में होता है। शायद मनुष्य की दर्द पहली अनुभूति है। इसलिए ही कहाजाताहै कि कविता से संगीत तक सभी का जन्म दुख या दर्द से ही हुआ है। संगीत में सबसे अहम स्थान है आवाज। सबसे पहले आदमी ने गाना शुरु किया होगा। इसके बाद हीतरह-तरह के वाद्य-यंत्र आए। सिर्फ़ आवाज के साथ यानि बिना वाद्य-यंत्रों के या सिर्फ एकही वाद्य-यंत्र की सहायता से सबसे ज्यादा गाने गाने वालों में रफी शायद पहला नाम है।
एक वेबसाइट है भारत सरकार की। प्रकाशन विभाग आता है सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के अंतर्गत उसी की बात कर रहा हूं। मैं पिछले दो-तीन वर्षों से इस साइट पर जाकर भारत 2008, 2009, 2010 तक किताब डाउनलोड करता था। लेकिन इस बार इण्डिया 2011 वह भी बहुत ही घटिया रूप में सिर्फ़ कुछ पन्नों में उसकी झलक दिखायी गई है, तो बहुत देर के बाद आ गयी है लेकिन भारत 2011 का अभी तक कोई अता-पता नहीं। हमारे प्रधानमंत्री और लगभग सारे मंत्री अंग्रेजों की मानस संतानें हैं। शायद इसलिये ऐसा हो रहा है कि जो किताब साल के शुरु में ही आ जाती थी वह आज तक इस साल में 60 दिन बीत जाने पर भी नहीं आयी है। और मुझे लगता भी नहीं कि आयेगी। हमारी सारी सरकारें खासकर वर्तमान सरकार अंग्रेज लोगों से भरी पड़ी है। प्रधानमंत्री को साल में एक दो बार ही आप हिन्दी और पंजाबी बोलते सुन पायेंगे। हमारे देश में एक और इतिहास है कि एक ऐसे आदमी को जिसे भारत की 80 करोड़ से भी ज्यादा जनता बोल सकती है, समझ सकती है ऐसी भाषा नहीं जानने वाले को राष्ट्रपति बनाकर भारत का प्रतिनिधि बनाया जाता है। शायद ही किसी देश में ऐसा हुआ हो कि एक राष्ट्राध्यक्ष अपनी राष्ट्रभाषा जानता ही नहीं हो।